पत्रकारिता की भाषा में सुनामी का दौर

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यों तो परिवर्तन जीवन का नियम है और भाषा का भी अपना जीवन होता है. उसमें भी वक़्त के साथ परिवर्तन आते हैं. ‘उदन्त मार्तंड’ की भाषा आज एकदम अजीब-सी लगती है. कई-कई बार तो समझ में भी नहीं आती. लेकिन परिवर्तन जब स्वाभाविक न होकर एकदम सुनामी की तरह आता है तो चिंतित होना स्वाभाविक है. हिन्दी पत्रकारिता की भाषा के साथ भी पिछले 15-20 वर्षों में यही हुआ है. एक साथ इतने सारे परिवर्तन आये कि वे सब हजम नहीं हो पा रहे हैं.

अंग्रेज़ी से अनुवाद की मजबूरी तो हिन्दी पत्रकारिता के साथ शुरू से ही रही. जिस वजह से हिन्दी पत्रकारिता स्वतंत्र तरीके से कभी अपने पैरों पर खड़ी ही नहीं हो पायी. आजादी के बाद बड़े समाचार पत्र घरानों ने दिखाने के लिए एक-एक अखबार हिन्दी का भी ‘डाल’ लिया था, जिसके साथ सदैव दोयम दर्जे का व्यवहार होता रहा. अंग्रेज़ी पत्रकारों की कॉपी को हिन्दी में अनुवाद की अनिवार्यता के कारण ही हिन्दी का मुहावरा विकसित नहीं हो पाया. ऐसे घराने भी थे, जो सिर्फ हिन्दी अखबार प्रकाशित करते थे, लेकिन वे सामर्थ्य में बहुत छोटे होने से कोई रुझान विकसित नहीं कर पाए. फिर भी 1990 तक हिन्दी का कुछ तो अपना चरित्र बचा हुआ था.

1987 में इंडिया टुडे का हिन्दी संस्करण निकला तो उसका नाम हिन्दी में न रख कर देवनागरी में भी वही रख दिया गया. इससे पहले भी ऐसे कुछ प्रयास हुए थे लेकिन सीधे-सीधे अंग्रेज़ी नाम को हिन्दी में रख देने से लगा कि हिन्दी के प्रति पत्र-स्वामियों का व्यवहार बदल गया है. उन्हें हिन्दी पर भरोसा नहीं था. यहाँ पहुँच कर पत्र-पत्रिकाओं की विषय-वस्तु पर उसका ब्रांड हावी होने लगा था. उसके बाद निकले संडे ऑब्जर्वर और संडे मेल ने भी यही किया. फिर तो सभी को जैसे पंख लग गए. टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह ने एक तरफ अपने अंग्रेज़ी अखबार का हिन्दी संस्करण निकालने की योजना बनाई तो दूसरी तरफ हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं को बंद करने की ठान ली. हिन्दी की पत्रिकाओं को अकाल मृत्यु देकर फिल्म फेयर और फेमिना को इन्हीं नामों से हिन्दी में निकालने की कोशिशें हुईं, जबकि हिन्दी की ‘माधुरी’ बहुत अच्छी पत्रिका थी. वर्ष दो हजार तक आते-आते यह प्रवृत्ति तेजी से आगे बढ़ी. अन्य घरानों को भी पंख लगे. नवभारत टाइम्स ने अपने संस्करणों, कालमों के नाम बदल कर अंग्रेज़ी में रखने शुरू कर दिए. खबरों और लेखों की भाषा में अधिक से अधिक अंग्रेज़ी शब्दों को घुसाने की कोशिश की. दैनिक भास्कर ने दो कदम आगे बढ़कर शीर्षकों में ज्यादा से ज्यादा शब्द अंग्रेज़ी के रखने शुरू कर दिए. यहाँ तक कि इन दो अखबारों ने शीर्षकों में रोमन लिपि को घुसाना भी शुरू कर दिया. यह काम चोरी-छिपे नहीं हुआ, बाकायदा घोषणाओं के साथ हुआ. इन अखबारों ने हिंगलिश के पक्ष में लेख लिखे और अपने प्रयोगों का औचित्य समझाया. चूंकि हिन्दी जगत में इन कुप्रयोगों पर कोई ख़ास विरोध नहीं हुआ, इसलिए अन्य अखबारों को लगा कि शायद यही सफलता का राजमार्ग है. जाहिर है वे भी इसी रास्ते पर चल पड़े. खबरों में थोड़ी-बहुत हिंगलिश को अपनाएँ तो बात फिर भी समझ में आती है, फीचर परिशिष्टों, सम्पादकीय पृष्ठों में भी जम कर हिंगलिश का इस्तेमाल होने लगा. ऐसा नहीं कि इससे भाषा सरल और बोधगम्य होती है, बल्कि इससे तो आप अपने अखबार को आम जनता से दूर ही ले जाते हैं. हाँ, इससे आपकी ब्रांडिंग जरूर होती है कि आप ऐसे पाठकों के अखबार हैं, जो अंग्रेजीदां हैं. यानी वे ‘अप-मार्केट’ हैं. यह प्रवृत्ति एक भाषा के लिए तो अपमानजनक है ही, उस समाज के लिए भी घातक है, जिसकी वह भाषा है. सहज रूप से होने वाले परिवर्तन का स्वागत होना चाहिए. लेकिन बनावटी बदलाव उचित नहीं है. लोग कह रहे हैं कि यह सहज विकास है. वास्तव में यह सहज नहीं है. इसके मूल में ‘लोभ’ है. यह एक फर्जी प्रवृत्ति है. इसका विरोध होना ही चाहिए. (samachar4media.com , १४ सितम्बर, २०१४ से)

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