आज के समय में सच्ची पत्रकारिता एक कठिन कर्म है. यह कर्म तब और भी मुश्किल हो जाता है, जब पत्रकारिता स्थानीय स्तर की हो. स्थानीय से हमारा आशय स्थान विशेष से है. अर्थात जब किसी अखबार के पाठक ठीक उसके सामने बैठे हों या उसका पाठक वर्ग निर्धारित क्षेत्र में फैला हो. ऐसे में पाठक तो सामने होता ही है, जिसकी खबर ली जानी है, वह भी सामने बैठा होता है. राष्ट्रीय पत्रकारिता का क्षेत्र चूंकि व्यापक होता है, इसलिए उसके विषय और पाठक, दोनों का फैलाव भी विस्तीर्ण होता है. उसका अपने पाठक के साथ वैसा प्रगाढ़ रिश्ता नहीं होता, जैसा कि स्थानीय पत्रकारिता का होता है. मुझे अपने तीन दशक से अधिक के पत्रकारीय जीवन में हमेशा यह मलाल रहा कि मैंने हमेशा राष्ट्रीय पत्रकारिता की. अपने लोगों के बीच रह कर पत्रकारिता करने का सौभाग्य नहीं मिला.
पत्रकारिता का कर्म मुश्किल इसलिए हो गया है कि आज पत्रकारिता एकदम व्यावसायिक हो गयी है. व्यावसायिक से भी ज्यादा सटीक शब्द होगा व्यापारिक. वह काफी खर्चीली हो गयी है. हिन्दी पत्रकारिता में यह बदलाव ज्यादा ही मुखर होकर सामने आया है क्योंकि पिछले बीस वर्षों में उसका जबरदस्त फैलाव हुआ है. चूंकि पहले पत्रकारिता मिशनरी थी और आज एकदम से व्यापारिक हो गयी है, इसलिए भी यह बदलाव ज्यादा ही दिखाई पड़ता है. समस्या यह भी है कि जिस पैमाने पर अखबार फैले हैं, उस पैमाने पर अखबार निकालने वाले नहीं बदले हैं. इनमें पत्र स्वामी भी हैं और पत्रकार भी. जितने बड़े पैमाने पर योग्य, दक्ष और ईमानदार पत्रकारों की जरूरत आन पड़ी है, उतने तैयार नहीं हो पाए. फिर पत्र-स्वामियों ने भी इस जरूरत को नहीं समझा. क्योंकि वे स्वयं भी इस अप्रत्याशित विस्तार के लिए तैयार नहीं थे. इसलिए हिन्दी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पत्रकारीय मूल्यों का हनन दिखाई पड़ता है.
पत्रकारीय मूल्यों की बात करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पत्रकारिता का पहला और अंतिम धर्म सत्य और निष्पक्षता है. जहां भी इससे विचलन होगा, वहाँ पत्रकारीय नैतिकता का ह्रास होगा. अब चूंकि हमारे समाज में ही व्यापक तौर पर मूल्यों में ह्रास आया है, इसलिए पत्रकारिता में भी ह्रास आना स्वाभाविक है. ऐसे में सत्यनिष्ठ पत्रकारिता कर पाना भी मुश्किल हो गया है. इसके बावजूद पत्रकारिता हो रही है तो उसके पीछे एकमात्र कारण यह है कि पत्रकारिता में समाज हित का भाव अन्तर्निहित होता है. यही उसकी शक्ति है. तमाम बुराइयों के बावजूद आज भी अच्छी पत्रकारिता के उदाहरण मिल जाते हैं.
जहां तक स्थानीय पत्रकारिता का प्रश्न है, उसमें सबसे बड़ी मुश्किल यह आती है कि जिसके बारे में, पक्ष या विपक्ष में आप लिखते हैं, वह आपके सामने मौजूद रहता है. स्थानीय सुशासन के त्रिकोण में नेता, प्रशासन और पत्रकार की बड़ी भूमिका होती है. न्यायपालिका भी है, लेकिन स्थानीय स्तर पर वह व्यवस्थापिका में ही समाहित होती है. आप किसी के खिलाफ कुछ भी लिखते हैं, तो आपको प्रतिक्रया के लिए तैयार रहना पड़ता है. इसी तरह आपके अपने नाते-रिश्तेदार भी होते हैं. उनमें कुछ लोग गड़बड़ भी हो सकते हैं. आप उनके खिलाफ कैसे छापेंगे? आप कैसे निष्पक्ष पत्रकारिता करेंगे? स्थानीय अपराध तंत्र की खबर लेना भी कम मुश्किल नहीं होता. मुंबई जैसे महानगर में बड़े अपराधी इस बात पर खुश होते थे कि कोई उनकी खबर छाप रहा है. लेकिन यहाँ तो आप सामने हैं. आपका कुछ भी छिपा नहीं होता. हाल के वर्षों में आपने यह भी देखा होगा कि पत्रकारों पर हमले काफी बढ़ गए हैं. आज से 30 साल पहले हम ऐसी घटनाओं के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. जैसे हमारे यहाँ दूत को मारना पाप समझा जाता था, उसी तरह पत्रकार पर हाथ उठाना भी पाप समझा जाता था. लेकिन आज ऐसा नहीं है. यह पत्रकारीय मूल्यों में ह्रास के कारण है. इसलिए पत्रकारों और पत्र-स्वामियों, दोनों को यह समझना होगा कि इस पेशे में कदम रखना कितना चुनौतीपूर्ण है. पेशेवर मूल्यों के साथ पत्रकारिता करने से ही हम उसकी खोई हुई गरिमा को लौटा पायेंगे. (जनपक्ष आज, सांध्य दैनिक, हल्द्वानी के प्रवेशांक {पांच मार्च, २०१६} में प्रकाशित. साभार)