अपने सपनों का उत्तराखंड बनाएँ

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उत्तराखंड आज यानि नौ नवम्बर को अपने जीवन के 25वें वर्ष में कदम रख रहा है। यह क्षण हम जैसे उन असंख्य लोगों के लिए निस्संदेह एक भावुकता भरा क्षण है, जिन्होंने इस राज्य के निर्माण में थोड़ा-सा भी योगदान किया है। 1980 के आसपास विभिन्न चरणों में हुए पृथक राज्य आंदोलन की झलकियाँ एक के बाद एक आँखों के सामने तैर रही हैं। किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि ये सपना इतनी जल्दी साकार हो जाएगा और देखते ही देखते 25वें पायदान पर कदम रखेगा। वास्तव में हर उत्तराखंडी के जीवन में यह एक महत्वपूर्ण दिन है। एक नए संकल्प का दिन है।

यों आदमी के जीवन में 25 साल का विशेष महत्व होता है। वह बचपन और कैशोर्य के बाद यौवन में होता है और ब्रह्मचर्य की सरहद को पार कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है। उसके बाद उसके जीवन में जिम्मेदारियों की चुनौतियाँ आती हैं। यदि व्यक्ति ने इस समय का ठीक से उपयोग कर लिया तो अगली अवस्थाओं की राह आसान हो जाती है। भावी पीढ़ियाँ आपको आदर के साथ याद करती हैं।  

लेकिन एक राज्य के लिए 25 साल का समय बहुत ज्यादा नहीं होता। क्योंकि उसकी उम्र सिर्फ सौ वर्ष नहीं होती। वह हजारों-हजार साल तक जीवित रहता है। लेकिन 25 साल का समय इतना कम भी नहीं होता। कम से कम शैशव की दहलीज तो वह पार कर ही चुका होता है। यहाँ एक-एक कदम बेहद सोच-समझ कर रखना पड़ता है। आज रखा गया एक कदम सैकड़ों साल तक के जन जीवन को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। आज पिछले 24 वर्षों में हुए कामों, प्राप्त सफलताओं-विफलताओं का आकलन करने का समय तो है ही, साथ ही उनसे सीख लेकर भविष्य की योजनाओं पर सोच-विचार करने का भी है।

मुझे याद है, 1978 में जब मैं पंजाब विश्वविद्यालय में एम ए की पढ़ाई कर रहा था, तब उत्तराखंड की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। चंडीगढ़ में एक बड़ी सभा हुई थी, जिसमें गढ़वाल के तब के सांसद त्रिपन सिंह नेगी वहाँ पधारे थे। समस्त प्रवासी उत्तराखंडियों से एक होने की अपील की गई थी। फिर अगले ही साल वहाँ पृथक उत्तराखंड राज्य परिषद की नींव रखी गई थी। वहाँ सक्रिय सभी संस्थाएं उसमें शामिल हुई थीं। सभी संस्थाओं की तरफ से दो-दो प्रतिनिधि उसकी कार्यकारिणी में रखे गए। मैं कुमाऊँ सभा का महासचिव था। हमारे तत्कालीन अध्यक्ष लाल सिंह जी ने मुझे सचिव बनाकर भेजा। परिषद के अध्यक्ष थे अवकाशप्राप्त आईएएस महिमा दत्त ममगाईं। मेरे जैसे चार लोग सचिव बने। हम लोगों का काम उत्तराखंड के बारे में लोगों को जागरूक करना था। अलग राज्य बनेगा भी, यह हम में से कोई नहीं जानता था। अलग राज्य कैसा होगा, यह भी हम नहीं जानते थे। लेकिन घर घर जाकर लोगों को जागरूक जरूर करते थे। यह तो चंडीगढ़ की बात है। देश के हर शहर में, जहां भी उत्तरखंडी रहते थे, सभी अलग राज्य के लिए अंदर ही अंदर सुगबुगा रहे थे। बाद में मैं देहारादून, मुंबई, कोलकाता और दिल्ली में रहा। सब जगह यही देखने को मिलता था। लोग जाति, धर्म और विचारधारा से ऊपर उठकर अलग राज्य का सपना देखने लगे थे। हर आदमी के भीतर कोई न कोई सपना होता था। उसे लगता था कि अलग राज्य उसके सपनों को साकार कर देगा।

अलग राज्य बनने के बाद पिछले 24 सालों में बहुतों के सपने साकार हुए हैं, बहुतों के सपने अधूरे हैं। बहुत से लोग यह भी कहते सुने जाते हैं कि इससे तो उत्तर प्रदेश में ही भले थे। मैं यह नहीं कहता कि प्रदेश में कोई विकास हुआ ही नहीं। विकास हुआ भी है, लेकिन लगता है कि जो कुछ हो रहा है अनियोजित हो रहा है। विकास को दिशा देने की जरूरत है। हमें ऐसा विकास चाहिए जो हजार वर्ष तक टिकाऊ बना रहे।

हमारे पहाड़ बचे रहें, हमारे ग्लेशियर बचे रहें, हमारे जंगल बचे रहें, उनके भीतर हर तरह के जीव जन्तु खुद को सुरक्षित महसूस करें, हमारी वनस्पतियाँ जीवित रहें, हमारी नदियां सदानीरा बनी रहें, हमारे लोग, हमारी परम्पराएँ, हमारा स्वभाव और हमारी कर्मठता बची रहे। हिमालय बचेगा तो देश बचेगा। इन तमाम चीजों और भावों को बचाए रखते हुए हम भावी विकास की नींव के पत्थर रखें। यही हमारे स्थापना दिवस का संकल्प हो। जय उत्तराखंड, जय भारत।  

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