माघ शुक्ल पंचमी या श्री पंचमी या वसंत पंचमी से वसंत ऋतु का आरम्भ होता है. भारतीय ऋतुओं के हिसाब से देखें तो माघ और फागुन के महीने शिशिर ऋतु की झोली में आते हैं. यदि मौसम यानी तापमान के हिसाब से देखें तो यह समय सचमुच हेमंत का है, कड़ाके की ठण्ड का है. आधे माघ तक सर्दी का असर रहेगा और उसके बाद सरसराती हवाओं की ऋतु शिशिर आयेगी और तब जाकर कहीं वसंत ऋतु आयेगी. तो क्या हमारे पंचांगकारों को मतिभ्रम हो गया था? या हमारे उत्सव-त्यौहार मनाने वालों को इस बात का भान नहीं रहा कि वे वसंत पंचमी को किस ऋतु में रख रहे हैं?
कुछ गहराई से सोचने पर लगेगा कि दोनों अपने स्थान पर सही हैं. हिसाब-किताब लगाने वाले पंचांगकार यांत्रिक तरीके से ऋतुओं की गणना करते हैं तो मानव हृदय की गहराइयों में गोते लगाने वाले उत्सवकार मनुष्य की उमंगों- आकांक्षाओं के लिहाज से सोचते हैं. एक तरफ मनुष्य की आदिम इच्छाएं हैं, निरंतर प्रगतिकामी मानव स्वभाव है, तो दूसरी तरफ यांत्रिक तरीके से सोचने वाले योजनाकार. वसंत ऋतु आने वाली है, यह सोचना ही हमें कितना हर्षोल्लास से भर देता है! हेमंत की कड़कती ठण्ड के बाद यों तो शिशिर की उड़ाती हवाओं से हमारा पाला पड़ता है, लेकिन हम हेमंत से सीधे वसंत में छलांग लगा लेना चाहते हैं. जैसे हम शिशिर के अस्तित्व को ही सिरे से नकार देते हैं. क्योंकि शिशिर जीवन की सांझ का प्रतीक है. बार्धक्य का प्रतीक है. उसमें कुछ भी नयापन नहीं. जो कुछ जर्जर हो चुका है, वह उसे उड़ाकर फेंक देना चाहता है. यदि दिन के हिसाब से देखें तो वसंत नई सुबह का प्रतीक है. सुबह की पुरवाई, सुबह की लालिमा, सुबह की ऊष्मा किसे अच्छी नहीं लगती! सुबह निश्चय ही नवजीवन का सन्देश लेकर आती है. हेमंत की हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड के बाद स्वाभाविक परिणति शिशिर ही हो सकती है. लेकिन हम हैं कि उसे और नहीं सह सकते. इसलिए हम सीधे नवजीवन में कदम रखना चाहते हैं. यानी वसंत हमारी आकांक्षा है. जो हम हैं, वह हमें स्वीकार्य नहीं है. जो हम होना चाहते हैं, वह वसंत है. सचमुच वह हमारा सपना है. इसीलिए गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं, मैं ऋतुओं में ऋतुराज वसंत हूँ.
जो श्रेष्ठतम है, जहां पहुंचकर कल्पना का भी चरमोत्कर्ष हो जाता है, वहाँ वसंत है. इसीलिए उसे ऋतुराज कहा जाता है. कवि उसे प्रेम की ऋतु भी मानते हैं. लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है. जैसे कृष्ण का चरित्र है, वैसे ही वसंत का स्वरुप है. कृष्ण केवल प्रेम के देवता नहीं हैं. वे योद्धा हैं, सारथी हैं, रणनीतिकार हैं, मददगार हैं, तारणहार हैं और सबसे ऊपर योगेश्वर भी हैं. इसलिए वसंत को आप किसी देश-काल से निबद्ध नहीं कर सकते. वह एक तरह का एहसास है. इसलिए वह शिशिर ऋतु के आरम्भ अर्थात माघ शुक्ल पंचमी को ही आ पहुंचता है. पूरे डेढ़ महीने पहले. आप भलेही उसे हरे-भरे मैदानों में, वन-प्रान्तरों में, हेमंत-शिशिर में ठूंठ हो गए वृक्षों में आयी नई कोंपलों में, कलियों में, फूलों में, पराग कणों में, कोयल की कुहुक में, घुघूती के बासने में तलाशें, लेकिन सचाई यही है कि तब तक आपकी तलाश अधूरी रहेगी, जब तक कि आप उसे अपने भीतर नहीं तलाशेंगे. असली वसंत सचमुच हमारे अपने भीतर होता है. वह हमारी चाहत में निहित है.
बेशक वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है, अपने पुराख्यानों में हमें मदनोत्सव के उल्लेख भी प्रचुरता में मिलते हैं, और वसंत का एक रूप यह है भी. लेकिन उसे केवल प्रेम की ऋतु कहना भी भूल ही होगी. यदि ऐसा होता तो हम वसंत पंचमी को सरस्वती पूजा के रूप में न मनाते. सरस्वती हमारे समस्त देवी-देवताओं में सतोगुण की अधिष्ठात्री देवी हैं. उनके जिस स्वरुप की हम पूजा-अर्चना करते हैं, उसे देखते ही हमारी आँखें श्रद्धा से नम हो जाती हैं. उसमें रूप है, सौन्दर्य है, सबकुछ है, लेकिन फिर भी उसकी आँखों में जो मौन है, जो गहराई है, वह उसे सहज ही मां बना देता है. इसलिए जब हुसैन सरस्वती की नग्न तस्वीर बनाते हैं, तो हमारे गले नहीं उतरती. सरस्वती को हम हजारों वर्षों से कला-संस्कृति की देवी मानते आये हैं. वह अक्षर की देवी है. विद्या की देवी है. विद्या हमें विनयी बनाती है, वह मुक्ति प्रदान करती है. मुक्ति बाह्य वर्जनाओं से, अंतस के बंधनों से. कहा भी गया है, ‘सा विद्या या विमुक्तये’. मुक्ति का एहसास शायद दुनिया का सबसे श्रेष्ठ एहसास है.
सरस्वती शुभ की देवी है. इसीलिए इस दिन हम बिना दिन-बार निकाले कोई भी शुभ कार्य कर लेते हैं. श्रीपंचमी को हम धनधान्य का पर्व भी मानते हैं. कुमाऊं में तो इस दिन जौ के तिनाड़े शिरोधार्य करने की परम्परा है. यह हजारों वर्षों से जीवित हमारी कृषक सभ्यता को मजबूती से बनाए रखने का द्योतक है. इस दिन गृह प्रवेश करते हैं, शिशुओं को अन्न प्राशन करते हैं, बच्चों के हाथ में कलम देते हैं, कर्णवेध, यज्ञोपवीत संस्कार, और विवाह से जुडी रस्में निभाते हैं. अर्थात कोई भी काम, जो हमारी चाहत होता है, उसे हम वसंत पंचमी से करते हैं. इसी से सिद्ध होता है कि वसंत वह है, जो हम चाहते हैं. इसलिए निराला यदि देवी सरस्वती से ‘नव गति, नव लय, ताल-छंद नव’ मांगते हैं तो सुभद्रा कुमारी चौहान ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ में शौर्य की कामना करती हैं. आज़ादी की लड़ाई में क्रांतिकारियों का प्रिय गीत भी ‘मेरा रंग दे वसंती चोला’ यों ही नहीं बना था. अर्थात वसंत को केवल प्रेम की ऋतु कहना हमारी नासमझी होगी. वसंत इस सबसे कहीं ऊपर है. वह प्रेम का उदात्त स्वरूप है, वह नव-सृजन का प्रेरक है. प्रकृति और पुरुष के एकाकार होने का पर्व है वसंत. आओ इस का स्वागत करें. (जनपक्ष आजकल, फरवरी, २०१४ में प्रकाशित)