हिंदी के विस्तार को व्यवस्था दीजिए

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क्या आप जानते हैं कि हिंदी की झोली में कितने शब्द हैं? शायद नहीं जानते होंगे। हम भी नहीं जानते थे। जानें भी कैसे? कौन बताए? भला हो ग्लोबल लैंग्वेज मॉनीटर का, जिसने गत वर्ष अपनी सालाना रिपोर्ट में यह बताया था कि हिंदी में महज एक लाख 20 हजार शब्द हैं। जबकि तभी अंग्रेजी ने 10 लाखवां शब्द अपने शब्द भंडार में शामिल करने की घोषणा की थी। है ना आश्चर्य की बात? दुनिया में जितनी बड़ी आबादी हिंदी बोलने वालों की है, लगभग उतनी ही अंग्रेजी बोलने वालों की भी होगी। यह ठीक है कि अंगे्रजी का फैलाव बहुत ज्यादा रहा है, दुनिया के लगभग हर महाद्वीप में उसके बोलने वाले हैं, और हर भाषा से उसने कुछ न कुछ लिया ही है, इसलिए उसके पास शब्दों का भंडार भी उतना ही समृद्ध है, जबकि हम लगातार सिमटते जा रहे हैं। तो शब्दों का भंडार भरे भी तो कैसे? सतही तौर पर देखने पर यह एक जायज तर्क लगता है, लेकिन थोड़ा सा गहराई से पड़ताल करें तो पाएंगे कि हिंदी का क्षेत्र भी कम चौड़ा नहीं है। हिंदी की मां तो संस्कृत है ही, उसकी अपनी बहनें भी कम नहीं हैं। 22 तो संविधान में सूचीबद्ध भाषाएं हैं ही, उनके अलावा सैकड़ों बोलियां और उपबोलियां हैं। जिन-जिन देशों में भारतवंशी पहुंचे हैं, उनकी अपनी भाषाएं बन गई हैं, वे भी हिंदी का विस्तार ही हैं। फिर अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, जर्मन, इटैलियन, चीनी और जापानी  जैसी दर्जनों भाषाएं हैं, जिनके साथ हमारा आदान-प्रदान हो रहा है, जहां से हम शब्द ग्रहण कर सकते हैं या करना चाहिए।

आश्चर्य की बात यह है कि दस लाख से अधिक शब्द होते हुए भी अंग्रेजी भाषा का मूल स्वरूप बना हुआ है या कहिए कि वह विकृत नहीं हुई है, जबकि हिंदी हर रोज लांछित होती रहती है। हिंदी से परहेज रखने वाले लोग हिंदी पर आरोप लगाते हैं कि वह संस्कृतनिष्ठ शब्दों से भरी हुई है, कि हिंदी के कुछ ठेकेदार उसे कुएं के मेंढक की तरह बनाए रखना चाहते हैं, उसे अपनी लक्ष्मण रेखा से बाहर नहीं निकलने देते। जबकि हिंदीवाले इसलिए खफा हैं कि उसमें जबरन अंग्रेजी के शब्द ठूंसे जा रहे हैं। ऐसा है भी। कुछ अखबार बीच-बीच में सिर्फ इसलिए अंग्रेजी के शब्द छिड़क देते हैं ताकि लगे कि उनके अखबार को अमीर वर्ग के लोग पढ़ते हैं। ऐसी स्थिति में हिंदी विकृत लगेगी ही। लेकिन सोचने की बात यह है कि लाखों शब्द बाहर से लेने पर भी अंग्रेजी नहीं बिगड़ी, जबकि हिंदी एक ही झोंके में धराशायी होती नजर आ रही है। इसलिए कि हमारे यहां भाषा के स्वरूप और पहचान को बचाए रखने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। 

दरअसल शब्द तो इस सारे परिदृश्य का एक छोटा सा पहलू हैं, जिनसे हिंदी लड़खड़ाती नजर आ रही है। आज जिस तरह से युवा वर्ग हिंदी के लिए देवनागरी के बजाए रोमन का इस्तेमाल कर रहा है, उससे हिंदी के पारंपरिक रूप को एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है। जितनी तरह की सूचनाएं और ज्ञान की सामग्री बाहर से आ रही है, उसे अपनी भाषा में अपने बच्चों को देने के लिए हम कतई तैयार नहीं हैं। जितने बड़े पैमाने पर अनुवाद की तैयारी होनी चाहिए, वह कहीं नहीं दिखाई देती। जिस तरह से हिंदी अपने ही देश में फैल रही है, उसकी वजह से सहोदरा क्षेत्रीय भाषाओं के साथ उसके रिश्तों में खटास पैदा हो रही है, उसे संभालने के लिए हमारे पास कोई नीति नहीं है। आरंभिक शिक्षा के माध्यम के रूप में भाषा के मुद्दे को जिस संवेदनशीलता के साथ लिया जाना चाहिए था, वह नहीं लिया गया, लिहाजा जिस गति से हिंदी बढ़ रही है, उससे कहीं अधिक तेजी से अंग्रेजी का फैलाव हो रहा है। पहले वह बड़े शहरों तक ही सीमित थी, आज वह गांव-गांव तक पहुंच रही है। इससे मुकाबले के लिए कहीं कोई छटपटाहट नहीं दिखाई पड़ती।  

यह बात बड़ी दिलचस्प है कि आज की तुलना में आजादी से पहले हिंदी का विकास बेहतर और समन्वित तरीके से हुआ। हिंदी साहित्य, भाषा, पत्रकारिता और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के बीच जैसा तालमेल उस दौर में दिखाई देता है, वह अद्भुत है। आज हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। आजादी से पहले बनी दो संस्थाएं – नागरी प्रचारिणी सभा और हिंदी साहित्य सम्मेलन की ही गतिविधियों पर एक नजर डालें तो आश्चर्य होता है। जहां नागरी प्रचारिणी सभा हिंदी में तमाम तरह के विषयों पर साहित्य निर्माण करवा रही थी, वहीं साहित्य सम्मेलन राजनीतिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में उसके लिए ठोस जमीन तैयार कर रही थी। सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशन भी लगभग उतनी ही गर्मजोशी के साथ होते थे, जितने कि कांग्रेस पार्टी के। मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंद दास, प्रेमचंद, बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे लोग इन अधिवेशनों की अध्यक्षता किया करते थे। इन अधिवेशनों में न सिर्फ साहित्य सृजन पर विमर्श होता था, बल्कि भाषा, पत्रकारिता, अनुवाद और उसके मानकीकरण पर भी गंभीर चर्चा होती थी। सबसे बड़ी बात यह है कि इन सम्मेलनों में जितने जोश के साथ हिंदी भाषी भाग लेते थे, उसी गर्मजोशी के साथ अहिंदी भाषी नेता, विचारक भी भाग लेते थे। आजादी के बाद हमने चूंकि हिंदी के काम को सरकार को सौंप दिया, और सरकार के मन में इसको लेकर सदा एक खोट रहा, इसलिए यह काम पतन के गर्त में धंसता चला गया। गोष्ठियां आज भी हो रही हैं, सरकार के हर पायदान पर हिंदी कार्यान्वयन समितियां हैं, संसदीय सलाहकार समिति है, केंद्रीय हिंदी समिति है, लेकिन परिणाम फिर भी सिफर ही है। जिस व्यवस्था में केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक में एजेंडा अंग्रेजी में परोस दिया जाता है, उस व्यवस्था से आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं।

हमारा निवेदन यह है कि तमाम अवरोधों के बावजूद आज हिंदी अपने ही बूते पर फैल रही है, उसका बाजार फैल रहा है, दुनिया भर में उसे लेकर एक जागरूकता बनी है, इसलिए आज चुनौतियां कहीं ज्यादा हैं। क्योंकि फैलना या विस्तार पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि उसे बनाए रख पाना। हम उसे तभी बनाए रख पाएंगे, जबकि हमारे पास एक मजबूत व्यवस्था हो। दुर्भाग्य से आज संस्थाओं को बनाए रखने में हिंदी समाज की कोई खास दिलचस्पी नहीं रह गई है। आजादी से पहले जिन संस्थाओं ने हिंदी के लिए महान कार्य किए, वे आज मृतप्राय हैं। आजादी के बाद सरकार ने जो संस्थाएं बनाईं, वे सरकार की लालफीताशाही का शिकार हैं। नख-दंत विहीन राजभाषा अधिनियम की तरह सरकारी संस्थाओं की दिलचस्पी भी हिंदी को लागू करने की बजाए उसे उलझाए रखने में रहती है। और निजी क्षेत्र यानी प्रकाशन ग्रहों, मीडिया घरानों के बीच कोई एकता नहीं दिखती। तो हिंदी को कौन बचाएगा? उसका विस्तार अवश्यंभावी है, लेकिन वह अराजक नहीं होना चाहिए। उसे व्यवस्था चाहिए। इसलिए हिंदी समाज अपनी निद्रा तोड़ कर जागे ताकि अपनी भाषा को बचाया जा सके। (दैनिक हिन्दुस्तान, १४ सितम्बर, २०१० से साभार) 

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