हिन्दी-उर्दू और देवनागरी

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इस देश की कोई ४० फीसदी आबादी हिन्दी को अपनी पहली भाषा मानती है. बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो उसे दूसरी भाषा मानते हैं. मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, ट्रिनिडाड, नेपाल, पाकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा और खाड़ी देशों में भी बड़ी संख्या में हिन्दी भाषी रहते हैं. इस तरह कुल ५० करोड़ लोग अच्छी तरह से हिन्दी जानते हैं या हिन्दी को अपनी भाषा मानते हैं. इसी तरह उर्दू बोलने वाले भी कोई २५ करोड़ लोग हैं जो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और दुनिया के अन्य देशों में रहते हैं. यानी दोनों को मिलाकर कुल ७५ करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनकी भाषा एक है, पर उन्हें पता नहीं. यदि ये सब लोग हिन्दी-उर्दू को एक भाषा मान लें तो यह वर्ग मंदारिन यानी चीनी भाषा के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी भाषा बन जायेगी. मंदारिन भी कौन सच्चे अर्थों में एक भाषा है! उसके भी अनेक रूप हैं. सिंगापुरी अलग है, फिलिपिनो अलग है. चीन के भीतर ही अनेक उपभाषाएँ हैं, जिन्हें एक लिपि में बाँध एक भाषा के रूप में समेट कर रखा गया है. लेकिन हिन्दी और उर्दू में तो बहुत कम फर्क है. दोनों की जन्मभूमि एक है, वाक्य-विन्यास एक है, व्याकरण एक है, लोग एक हैं. सिर्फ एक ही अंतर है- लिपि का. हाँ, जबसे सियासत के ठेकेदारों ने भाषाओं को धर्म से जोड़ दिया, तब से एक हिन्दुओं की और दूसरी मुसलामानों की भाषा बन कर रह गयी है, वरना हिन्दी के जन्मदाताओं में मुसलमान और उर्दू को बनानेवालों में हिन्दू ज्यादा थे.

दुनिया के भाषावैज्ञानिक इन दोनों भाषाओं को एक ही भाषा मानते हैं. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश के लोग इन्हें दो भाषाएँ ही मानते हैं. क्योंकि वे हिंदी या उर्दू की बजाय देवनागरी और फारसी/ नस्तालिक लिपियों को असली भाषा समझ बैठे हैं. वे यह नहीं जानते कि हिन्दुओं और मुसलमानों को बांटने की जुगत में हिन्दी और उर्दू के बीच दरार डालने का काम अंग्रेजों ने १८३७ के आस-पास शुरू किया था. बाद के वर्षों में महात्मा गांधी द्वारा दोनों भाषाओं को मिलाकर हिन्दुस्तानी कर देने और उसे राष्ट्रभाषा बनाने के प्रस्ताव को न मानकर पहले हिन्दी साहित्य सम्मेलन और बाद में कांग्रेस पार्टी ने बड़ी भूल कर डाली, जिसका नतीजा यह हुआ कि आज दोनों भाषाएँ आमने-सामने हैं. दोनों ही सम्प्रदायों में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जो हिन्दी को संस्कृत की ओर और उर्दू को अरबी-फारसी की ओर ले गए. और आज भी ले जाना चाहते हैं. लेकिन सचाई यही है कि दोनों भाषाओं में से उनके कुछ कठिन शब्द निकाल दिए जाएँ तो दोनों में कोई अंतर नहीं रह जाता है.

इसीलिए पिछली सदी के आखिरी दशक में क्रिस्टोफर किंग नाम के भाषावैज्ञानिक ने जब ‘वन लैंग्वेज इन टू स्क्रिप्ट्स’ नाम की किताब लिखी थी, तो दोनों ही भाषाओं के कट्टरपंथी आग-बबूला हो गए थे. लेकिन भाषा बहता नीर होती है. उसका स्वभाव ही कुछ ऐसा होता है कि वह सहजता की ओर चलती है. वह व्याकरण की दीवारों में नहीं बंधती. वह राजनेताओं या व्यापारियों के आदेशों को भी नहीं मानती. नतीजा यह हो रहा है कि आज उर्दू भाषी हिन्दी की ओर झुक रहे हैं और हिन्दी भाषी उर्दू की ओर. अपने ही देश में इस दिशा में अनेक प्रयास हो रहे हैं. मसलन कई उर्दू पत्रिकाएं देवनागरी लिपि में छपने लगी हैं, और अच्छा-खासा व्यवसाय कर रही हैं. इस्लामी साहित्य देवनागरी में आ रहा है. इसी तरह हिन्दी में भी उर्दू शब्दों और मुहावरों को ज्यादा से ज्यादा स्वीकार किया जा रहा है. उर्दू का साहित्य, भलेही वह पाकिस्तान का ही क्यों न हो, बड़ी मात्रा में अनुवाद हो कर हिंदी में आ रहा है. विदेशों में भी, हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा के रूप में पढ़ाया जाता है. टेक्सास विश्वविद्यालय में ‘हिन्दी-उर्दू फ्लैगशिप प्रोजेक्ट’ चल रहा है, जिसके अध्यक्ष हिन्दी विद्वान् रूपर्ट स्नेल हैं. और वहाँ हमारी बोली नाम का भी एक प्रोजेक्ट चल रहा है, जिसका मकसद ही यही है कि दोनों भाषाओं के बीच की दूरियों को ख़त्म किया जाए.

इसमें ताजा मुहिम निस्संदेह ‘हमारी बोली’ आन्दोलन की ही है. जिसका झंडा अमेरिका-यूरोप में जन्मी भारतवंशियों की नई पीढी ने बुलंद कर रखा है. इस पीढ़ी को एबीसीडी अर्थात अमेरिका में पैदा हुए कन्फ्यूज्ड देसी कहा जाता है. ‘कन्फ्यूज्ड’ के इस दाग को मिटाने के लिए ही शायद अमेरिका में पैदा हुई इस दूसरी-तीसरी पीढी के युवाओं में अपनी जड़ों के प्रति अनुराग पैदा हो रहा है. इनमें ज्यादातर युवा पाकिस्तानी मूल के हैं. कुछ भारतीय मूल के भी हैं. उन्हें लगता है कि हिन्दी और उर्दू ने दोनों भाषाओं और भाषियों को बहुत अलग कर लिया है, अब उनकी जगह ‘हमारी बोली’ को लेना चाहिए. वे हिन्दी और उर्दू को मिटा कर नया नामकरण कर रहे हैं, ‘हमारी बोली.’ वे मानते हैं कि उर्दू में से अरबी और फारसी के शब्द हटा दो, इसी तरह से हिन्दी में से संस्कृत के कठिन शब्दों को हटा दीजिए, हमारी बोली बन जाती है. इसके पीछे भी यही तर्क है कि काश, दोनों भाषाएँ मिल जाएँ तो कितनी ताकतवर बन जाएँ! अमेरिका में सबसे लोकप्रिय भारतवंशी ट्यूटर सलमान खान भी इस आन्दोलन से जुड़ चुके हैं. दुनिया भर में इसको फैलाने के लिए कोशिशें जारी हैं. स्वयंसेवक बनाए जा रहे हैं. सोशल मीडिया और अन्य मीडिया पर जमकर प्रचार किया जा रहा है.

हमारी बोली आन्दोलन की सबसे कमजोर कड़ी है, लिपि को लेकर उसका आग्रह. वे देवनागरी या नस्तालिक की जगह रोमन को ‘हमारी बोली’ की लिपि बनाना चाहते हैं.

दरअसल उनकी भी अपनी मजबूरी है. विदेश में पले-बड़े होने के कारण वे उसी लिपि को जानते हैं. उनके मां-बाप ने कभी कोशिश ही नहीं की कि उनके बच्चे अपनी लिपियों को जानें. केवल उन्हें ही दोष क्यों दिया जाए? हमारे अपने देश के भीतर आज अंग्रेजीदां स्कूलों में पढने वाले बच्चे कितनी देवनागरी जानते हैं. जिस तरह से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी रोमन में लिखे को हिन्दी में बोलते हुए पकड़े गए, वह उच्च वर्गीय समाज में मामूली बात है. मुंबई के हिन्दी फिल्म उद्योग में रोमन ही बड़े पैमाने पर हिन्दी की लिपि बन चुकी है. शुरुआती दिनों में जब टेक्नोलोजी में हिन्दी नहीं घुसी थी, टेलीप्रोम्प्टर पर अंग्रेज़ी के ही अक्षर दिखाई देते थे, स्टार न्यूज के हिन्दी समाचारों को रोमन में ही पढ़ा जाता था. आज बड़े पैमाने पर एसएमएस, ई-मेल, सोशल मीडिया में हिन्दी की लिपि रोमन बन गयी है. इसके दो कारण हैं: पहला यह कि हमारे स्कूलों में हिन्दी को आज भी दोयम दर्जा मिला हुआ है. दूसरा, उच्च वर्गीय लोग, ब्यूरोक्रेट, शिक्षाविद, शिक्षा-प्रशासक हिन्दी के प्रति हिकारत के भाव से देखते हैं. इसलिए देवनागरी भी उपेक्षित रह गयी. नतीजा यह हुआ कि आज की अंग्रेजीदां पीढी खुद को देवनागरी की जगह रोमन के करीब पाती है.    

सच बात यह है कि हमारी नई पीढी देवनागरी की वैज्ञानिकता से एकदम नावाकिफ है. वे नहीं जानते कि देवनागरी एक ध्वन्यात्मक लिपि है. जैसी बोली जाती है, वैसी ही लिखी भी जा सकती है. उसे नहीं मालूम कि हमारी भाषा की सबसे सबल वाहक देवनागरी ही है. देवनागरी का वर्तमान रूप अपनी लम्बी संशोधन यात्रा के बाद बना है. आज यदि नई पीढी को लगता है कि नए जमाने की कुछ ध्वनियों को वह अभिव्यक्ति नहीं दे पा रही है तो उसमें संशोधन-परिवर्धन किया जा सकता है. आजादी के आन्दोलन के दौरान इस मसले पर लम्बी बहस हो चुकी है. आचार्य विनोबा भावे का तो यहाँ तक कहना था कि सभी भारतीय भाषाएं देवनागरी को ही अपना लें. इससे राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा. कम से कम देवनागरी के रूपों को तो मिलाया ही जा सकता है. पूर्वी नागरी और पश्चिमी नागरी के भी अलग-अलग रूप हैं, जिनमें कुछ-कुछ ही अक्षर अलग हैं. इनसे नाहक ही अलगाव पैदा होता है. नागरी लिपि को लेकर नई पीढ़ी का अज्ञान ही उसे रोमन की ओर ले जा रहा है. यदि नई पीढ़ी देवनागरी की वैज्ञानिकता का बारीकी से अध्ययन करे तो वह पायेगी कि इसमें कितना दम है. हजारों वर्षों की उसकी यह यात्रा आज हमारी सरकारों की अकर्मण्यता और दास-मनोवृत्ति के चलते खतरे में पड़ गयी है. काश! हमारी नई पीढी हिन्दी और देवनागरी के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के द्वार खोलती तो आज हमें कदम-कदम पर नीचा नहीं देखना पड़ता. हिन्दी अनुवाद की भाषा बन कर न रह जाती.   

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