पश्चिमी मीडिया का नस्लभेद

0
19

टीआरपी और आईआरएस विवादों से एक बार फिर यह साबित हो गया है कि हमारा मीडिया पूरी तरह से पश्चिम का पिछलग्गू है. उसकी अपनी कोई सोच इतने वर्षों में नहीं बन पाई है. यहाँ तक कि हमारे मीडिया पर परोक्ष नियंत्रण भी उन्हीं का है. जब हमारे मीडिया के समस्त मानदंड वही तय करता है तो नियंत्रण भी उसी का हुआ. उसे किधर जाना है, किधर नहीं जाना है, यह भी पश्चिम ही तय कर रहा है. यानी भारत के सवा लाख करोड़ रुपये के मीडिया बाजार के नियंत्रण का सवाल है, जिसकी तरफ मीडिया प्रेक्षकों का ध्यान गया है. हालांकि इसमें केवल पश्चिमी मीडिया का ही दोष नहीं है, हमारे मीडिया महारथी भी बराबर के जिम्मेदार हैं. कई बार ऐसा लगता है कि उनके पास कोई विचार ही नहीं है. वे सिर्फ नक़ल के लिए बने हैं. अमेरिका से कोई विचार आता है तो वे उसे इस तरह से लेते हैं, जैसे गीता के वचन हों. मिसाल के लिए उन्होंने कहा कि खरीदार १८-३३ वर्ष का युवा है, इसलिए उसे सामने रख कर ही विज्ञापन की रणनीति बनाओ. पूरे देश के अखबारों में युवा दिखने की होड़-सी लग गयी. वह बात अलग है कि अब अमेरिका में ही इस विचार के विपरीत विचार आ गए हैं. उन्होंने कहा कि सम्पादक से ज्यादा ब्रांड मैनेजर जरूरी होता है, तो देश भर में सम्पादक नामक संस्था को ख़त्म करने की होड़ लग गयी. इस तरह से हमारे सम्पादकीय आदर्श धराशायी कर दिए गए.    

लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि एक तरफ पश्चिम की नजर भारत के मीडिया बाजार पर है, वह इसे अपने फरेबी मानदंडों के जरिये नियंत्रित करना चाहता है लेकिन दूसरी तरफ वह भारत को कभी गंभीरता से नहीं लेता. बल्कि यह कहना ज्यादा समीचीन होगा कि पश्चिम का मीडिया भारत को अपनी नस्लवादी सोच से ही देखता है. न सिर्फ अमेरिका, यूरोप के देश भी उसी निगाह से देखते हैं. हाँ, अब वे भारत को एक बाज़ार की तरह जरूर देखते हैं. भारत में पत्ता भी हिलता है तो वे हंगामा खडा कर देते हैं, जबकि खुद भीतर तक नस्लवादी सोच से सराबोर हैं.

पिछले साल भारत ने अपना मंगलयान अंतरिक्ष में भेजा. यह भारत की बड़ी सफलता थी. इस पर हमारी लागत आयी सात करोड़ ४० लाख डॉलर. नासा वाले जब ऐसा ही यान अंतरिक्ष में भेजते हैं तो इसका दस गुना खर्च आता है. लेकिन यूरोप-अमेरिका के मीडिया ने भारत की जमकर आलोचना की. सीएनएन ने लिखा कि भारत ने भयावह गरीबी के बीच मंगलयान भेजा. गार्जियन ने लिखा कि ब्रिटेन भारत को गरीबी के नाम पर हर साल ३० करोड़ डॉलर अनुदान देता है और भारत इस तरह से मंगल यान में रूपया बहा रहा है. अपने आप को पत्रकारिता का आदर्श कहने वाला इकोनोमिस्ट कहता है, गरीब देश आखिर कैसे अंतरिक्ष कार्यक्रम चला सकते हैं? गरीबी तो बहाना है, असल मुद्दा यह है कि वे चाहते ही नहीं कि गरीब देश या उनकी बिरादरी से इतर देश ये काम न करें.

अब बलात्कार की घटनाओं की रिपोर्टिंग ही देखिए. यह सब मानते हैं कि बलात्कार की घटनाएं मानवता के माथे पर कलंक हैं. लेकिन गत वर्ष दिल्ली में जब बलात्कार-विरोधी आन्दोलन चला था तब पश्चिमी अखबारों को जैसे भारत को गालियाँ देने का मौक़ा ही मिल गया. क्या अमेरिका, क्या यूरोप, तमाम देशों के अखबारों ने भारतीय समाज को जमकर कोसा. उन्होंने कहा कि भारत अभी असभ्य है, जंगली है. वहाँ स्त्रियों को कबीलाई युग की तरह से केवल उपभोग की वस्तु समझा जाता है. लेकिन आधुनिक युग की ही सचाई यह है कि भारत से चार गुना अधिक बलात्कार हर साल अमेरिका में होते हैं. भारत में प्रति वर्ष यदि २४ हजार बलात्कार होते हैं तो अमेरिका में ९० हजार से भी अधिक. फ्रांस, जर्मनी जैसे देशों में भी भारत से कहीं ज्यादा बलात्कार होते हैं. हम यह नहीं कहते कि भारत में कम होते हैं तो हम कोइ बहुत तरक्कीपसंद हैं. हमें आपत्ति इस बात पर है कि वे भारत को कोसने के लिए अपने रिकार्डों को भूल जाते हैं.

अब जलवायु परिवर्तन पर हो रही राजनीति को ही लीजिए. ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा दोषी अमीर देश रहे हैं. उनकी जीवन शैली ही धरती के लिए खतरा है. क्योटो प्रोटोकॉल ने इस बात को माना भी है. लेकिन अब जब भी किसी सहमति की बात होती है, या भारत अपनी कोई बात रखता है तो कह दिया जाता है कि ये ही खेल खराब कर रहे हैं. पश्चिमी मीडिया इस मामले में पूरी तरह से पक्षपाती रुख अख्तियार करता है.

असल बात यह है कि पश्चिमी देश भारत को अब भी ईएल बाशम का भारत ही समझते हैं. वे भारत की तरक्की को फूटी आँख नहीं देख सकते. वे भारत को या तो भिखमंगों का देश समझते हैं या फिर संपेरों-बाजीगरों का रहस्यमय देश ही मानते हैं. इसलिए कुम्भ मेला हो या ऐसा कोई धार्मिक आयोजन, पश्चिमी मीडिया उन्हें उसी नजर से देखता है. उनका अपना मीडिया नग्न तस्वीरें दिखाने का आदी है, बे-वाच जैसे कार्यक्रम के बिना उनका खाना हजम नहीं होता है. इसलिए कुम्भ या गंगा सागर जैसे मेलों में उनके कैमरे नग्नता की ही टोह में रहते हैं. वे भारत की विचित्रता को हमारे जंगलीपने के रूप में प्रस्तुत करते हैं. इसलिए भारतीय मीडिया को चाहिए कि वे अपने मूल्य गढ़ें, पश्चिम की गुलामी बंद करें.(लाइव इंडिया, फरवरी, २०१४ से)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here