एक ज़माना था जब धर्मगुरुओं ने हमें विश्व भर में प्रतिष्ठा दिलाई थी. लेकिन हाल के वर्षों में उन्होंने हमें बहुत लज्जित किया है. लगातार एक के बाद एक ऐसे किस्से सामने आये हैं, जिनके बारे में सुनते ही उबकाई आने लगती है. हम यह नहीं कहते कि सभी धर्मगुरु एक से हैं या जो आरोप उन पर लगे हैं, वे सही ही हैं. वह सब साबित करना क़ानून का काम है, लेकिन जिस तरह से धर्मगुरुओं की बाढ़ आ गयी है और जिस तरह की पंचतारा कम्पनियां उन्होंने खोल ली हैं, ये बहुत अच्छा संकेत नहीं हैं. वे लगातार धन-संचय, व्यापार और ऐय्याशी के आरोपों से घिरते जा रहे हैं. धर्मगुरुओं के ज्यादातर संगठन अवैध कारोबार के अड्डे बनते जा रहे हैं. समाज में धर्म का प्रचार-प्रसार हो, यह अच्छी बात है लेकिन धर्म के नाम पर कुछ लोगों का व्यापार देखते ही देखते अरबों का हो जाए, और उनकी ऐय्याशी के चर्चे समाज में हर आम-ओ-ख़ास की जुबां पर आ जाएँ, इससे बुरी बात और क्या हो सकती है? इससे तो धर्म की हानि ही होगी.
यह सोचने की बात है कि समाज में अचानक यह धर्म की बाढ़ कैसे आ गयी? यही वह बिंदु है, जहां इस बीमारी का मूल कारण छिपा है. आजादी के बाद हमारे समाज-जीवन से वास्तविक धर्म धीरे-धीरे गायब होता गया है. जो जीवन शैली हमने अपना ली है, उसमें धन की, भौतिक समृद्धि की तो पर्याप्त जगह है, लेकिन जिन कारणों से हमारा समाज जाना जाता था, वे सब लुप्त होते गए. त्याग और सादगी हमारी मुख्य पहचान थी, उन्हें हमने भुला दिया. जीवन में से जैसे अध्यात्म गायब हो गया. धर्म और अध्यात्म हमारे कदम-कदम पर था. उनके बिना हम अपने अस्तित्व की कल्पना ही नहीं कर सकते थे. लेकिन अंग्रेज़ी शिक्षा ने वह सब हमसे छीन लिया. भारतीय जीवन मूल्य जैसे भुला दिए गए. किसी भी राष्ट्र के जीवन में संस्कार भरती है शिक्षा. और जब शिक्षा ही पराये अर्थात पश्चिम का गुणगान करने लगे तो भावी संतानें दोगली होनी ही थीं. हम आधुनिक और विज्ञान सम्मत शिक्षा के विरोधी नहीं हैं, लेकिन हर बात के लिए पश्चिम की ओर मुंह ताकना कहाँ तक जायज है?अंग्रेजों ने समझा कि हमारे जाने के बाद भी हमारी शिक्षा बरकरार रहेगी. हमारे जीवन मूल्य सुरक्षित रहेंगे. हम चले जायेंगे लेकिन हमारे मानस-पुत्र राज करेंगे. बहुत हद तक यह हुआ भी है. लेकिन आप किसी भी सभ्यता को इतनी जल्दी समाप्त नहीं कर सकते. आप हमसे हमारा वर्तमान छीन सकते हैं, हमारे वर्तमान को अपने हिसाब से ढाल सकते हैं. लेकिन हजारों वर्षों से जीवित सभ्यता को नहीं मिटा सकते. हमारे इतिहास और परम्पराओं को हमसे नहीं छीन सकते. बिना हमसे छीने हमारे भूगोल को नहीं बदल सकते. इस प्रकार पिछले १५-२० वर्षों से, ख़ासकर विश्व फलक पर भारत के अभ्युदय के बाद दुनिया भर में भारत को जानने-समझने की ललक बढ़ी है. फिर हमने जिस तरह की समाज-व्यवस्था और अर्थनीति को अंगीकार किया है, जिस तरह का इंसान हम बना रहे हैं, उसने आग में घी डालने का काम किया. अर्थात पश्चिम आधारित हमारे विकास मॉडल ने जिस तरह की आपाधापी को जन्म दिया है, जिस तरह से शहरीकरण बढ़ रहा है, उसमें मनुष्य लगातार भीड़ में भी अकेला महसूस कर रहा है. वह धन के पीछे दौड़ रहा है. यह एक अंतहीन दौड़ है. ऐसे में जब आधुनिक मानव थक-हार कर बैठ जाता है, ‘सब कुछ’ प्राप्त कर लेने के बाद भी अतृप्त रह जाता है, तब उसे धर्म की याद आती है. अपनी जड़ों की ओर मुड़ने का मन होता है. आपको आश्चर्य होगा कि हमारे ज्यादातर साधु-सन्यासी भी अमेरिका जाकर ही तृप्त होते हैं. बिना अमेरिका का ठप्पा लगे उन्हें बड़ा धर्मगुरु नहीं मन जता. जो लोग धर्म-विरोधी, भारतीयता-विरोधी शिक्षा ग्रहण कर अमेरिका पहुँचते हैं, एक समय आता है, जब वे मोहभंग के शिकार बनते हैं. उन्हें रह-रह कर अपनी परम्पराएं याद आती हैं. अपने पूजा-विधान, कर्मकांड याद आते हैं. ऐसी अवस्था में जैसे ही कोई ‘संत’ चार शब्द संस्कृत के बोल देता है, उसे सर-आँखों पर बिठा लिया जाता है. यही वजह है की हर स्वामी अमेरिका से लौट कर ही अपना मठ बनाता है. यही हालत अब अपने देशवासियों की भी हो रही है. इसीलिए वे भी धर्म की ओर लौट रहे हैं. एकाकी परिवार में सुकून के पल खोजने वे अक्सर धर्मगुरुओं के पास जा पहुँचते हैं. यही नहीं कभी ज्योतिषियों के पास, कभी ओझे-सयानों के पास तो कभी तांत्रिकों के पास जा पहुँचते हैं. जब घर के गुरु उपलब्ध न हों तो बाहरी गुरुओं की तलाश ही होनी है. इस तरह हाल के वर्षों में गुरुओं की डिमांड बेतहाशा बड़ी है. जब धर्मगुरुओं की मांग बढ़ी तो आपूर्ति भी बढनी ही थी. वह बात अलग है कि मांग के अनुपात में प्रशिक्षित गुरुओं की आपूर्ति नहीं हो सकती थी. इतनी बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे ही नहीं. यही वजह है जो भी चालाक थे, वे इस पेशे में घुसने लगे. एक बार एक व्यक्ति दफ्तर में मिलने आये. उनका रंगरूप देखकर मैं हैरत में आ गया. युवावस्था में तो वह ऐसे न थे. वह तो निहायत बदमाशों की श्रेणी में आते थे. अब प्रौढावस्था में अचानक उन्हें गेरुए वस्त्र पहने, गले में रुद्राक्ष की माला लटकाए देख आश्चर्य हुआ. आखिर किसी व्यक्ति का इतना हृदय परिवर्तन कैसे हो सकता है? हमने पूछा कि काम कैसा चल रहा है. बोले बहुत अच्छा. ईश्वर-कृपा से किसी चीज की कमी नहीं. गाडी है, बँगला है, नौकर-चाकर हैं. राजनीतिक पहुँच है. क्या नहीं है? इस समृद्धि का राज खोलते हुए अंत में जाते-जाते बोल गए कि ‘राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे तीन शनि-मंदिर डाल लिए हैं’. तो मित्रो टीवी पर प्रवचन देते जो सैकड़ों धर्मगुरु दिखाई पड़ते हैं, उनमें से अधिकाँश ऐसे ही ‘गुरु’ हैं. उनके चोले को देखकर हमें गलतफहमी में नहीं आ जाना चाहिए. थोडा-सा भजन-कीर्तन कर लेने, गीता-रामायण के कुछ श्लोक-चौपाइयां रट लेने, प्रवचन के चार-छः शब्द सीख लेने, कुछ हास्य, कुछ सेक्स और कुछ लटके-झटके अपनाकर भक्त मंडली का मनोरंजन कर लेने भर से कोई संत नहीं बन सकता. इसलिए सावधान होकर चुनिए अपना गुरु. बेहतर तो यह होगा की अपने अंतर के गुरु को पहचानिए. बाह्य गुरु इतनी आसानी से नहीं मिला करते. (नैवेद्य, देहरादून, दिसम्बर २०१३ में प्रकाशित)