टीआरपी का गोरखधंधा

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देर से ही सही, टीवी चैनलों की व्यूअरशिप को जांचने के फर्जी तरीकों पर सरकार का ध्यान गया. केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने टीवी चैनलों की रेटिंग्स पर नए दिशा-निर्देश जारी किये हैं, जिन्हें लेकर चैनलों की दुनिया में खलबली मची हुई है. अभी तक सर्वे कराने वाली एजेंसी टैम की सांझीदार कम्पनी सरकार के इस कदम के खिलाफ अदालत में चली गयी है. वह इन दिशा निर्देशों को किसी भी कीमत पर लागू नहीं होने देना चाहती. यही नहीं, अभी तक फायदा ले रहे चैनलों के मालिक भी नई व्यवस्था को फेल करने पर तुले हुए हैं, लेकिन बाक़ी चैनल खुश हैं कि टीआरपी के इस गोरखधंधे पर कोई तो नकेल कसेगा. लेकिन चूंकि अभी तक नए दिशा-निर्देश लागू नहीं हो पाए हैं, इसलिए यह भी स्थिति आ सकती है कि कुछ अरसे तक रेटिंग की कोई व्यवस्था ही ना रहे. इसे टीआरपी ब्लैक आउट की स्थिति कहा जा रहा है.   

टीआरपी के गोरख धंधे ने जिस तरह से पिछले १५ वर्ष से देश की जनता और टीवी चैनलों को भ्रमित कर रखा है  और देश की संस्कृति को प्रदूषित करने का खेल चला रखा है, वह किसी आपराधिक षड़यंत्र से कम नहीं है. लेकिन हमारी सरकारों को अपने राजनीतिक जोड़-तोड़ से फुर्सत ही कहाँ जो संस्कृति जैसे विषयों पर ध्यान देतीं. लेकिन समाज में टैम की टीआरपी व्यवस्था की घोर निंदा होती रही है. क्योंकि बहुत थोड़े सैम्पल लेकर पूरे देश की व्यूअरशिप का फतवा जारी कर देने से टीवी चैनलों के कंटेंट पर बेहद बुरा असर पड़ रहा था. टैम का सर्वे दर्शकों के बीच एक खाई भी पैदा कर रहा था. 

पिछली सदी के आख़िरी दशक में जब देश में निजी टीवी चैनलों का जाल बिछने लगा तो टीआरपी जैसी अवधारणा सामने आयी. उससे पहले चूंकि देश में केवल सरकारी टीवी अर्थात दूरदर्शन था, इसलिए उसे कभी इस तरह की प्रतिस्पर्धी व्यवस्था की जरूरत नहीं पडी. व्यूअरशिप जांचने का उसका अपना तंत्र था, दूरदर्शन और आकाशवाणी का अपना ऑडिएन्स रिसर्च यूनिट हुआ करता था. वह तमाम कार्यक्रमों की व्यूअरशिप जांचता था. लेकिन जब देश में बहुत से निजी चैनल आ गए तो एक निष्पक्ष एजेंसी की जरूरत आन पडी. जो घर-घर जाकर यह सर्वे कर सके और यह बता सके कि कौन-सा चैनल कितना देखा जा रहा है. किस कार्यक्रम की कितनी लोकप्रियता है? यह काम निश्चय ही सरकार को करना चाहिए था, जिसने निजी और सेटेलाईट चैनलों के लिए दरवाजे खोले थे. पर सरकार को कहाँ इस सबकी फुर्सत? न फुर्सत और न ही वैसी दृष्टि. नतीजा यह हुआ की टैम जैसी अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां कूद पड़ीं. लेकिन चूंकि देश में कोई कायदा-क़ानून नहीं था, इसलिए जिसकी जैसी मर्जी आयी, वैसा किया.

आपको आश्चर्य होगा कि सन २००० तक खबरिया चैनलों की टीआरपी जांचने के लिए सिर्फ ढाई हजार घरों में पीपुल्स मीटर लगे हुए थे. वह भी बड़े-बड़े महानगरों, अमीर राज्यों के अमीर घरों में ही ये मीटर लगे हुए थे. यानी ढाई हजार घरों के दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरे देश की पसंद-नापसंद बताया जा रहा था. आप हैरान होंगे  कि पूरे बिहार और पूरे उत्तराखंड में एक भी मीटर नहीं था. वे चैनलों के विज्ञापनदाताओं के सामने एक ऐसा भारत पेश कर रहे थे, जो अमीर था, खुशहाल था, जिसकी कोई समस्या नहीं थी. उसकी पसंद को गरीब देश की पसंद बताया जा रहा था. जाहिर है वैसे ही कार्यक्रम भी बनने लगे. यह टीआरपी कंपनी का जाल-फरेब था, जो आम दर्शक को मूर्ख समझता था. टीवी कंपनियों को यह व्यवस्था मुफीद आती थी, क्योंकि इससे विज्ञापन उठाने में आसानी होती थी. जो चैनल आपको बहुत पसंद हो, जिसके कार्यक्रम आपको बहुत अच्छे लगते हों, जरूरी नहीं कि वे इन मुट्ठी भर दर्शकों को भी अच्छे लगें. लिहाजा हुआ यह कि सारे चैनलों पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों का स्तर खराब होने लगा. खबरिया चैनलों पर दिखाए जाने वाले समाचार का स्वरुप विकृत होने लगा. न्यूज के नाम पर सांप-छछूंदर दिखाए जाने लगे. जादू-टोना और अंध विश्वास ने तर्क और प्रगतिशील विचारों की जगह ले ली. गाय को उड़ते हुए दिखाया जाने लगा. बेतूल के कुंजीलाल की मरने की घोषणा का लाइव प्रसारण हुआ. बड़े-बड़े खुर्राट पत्रकार भी किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आने लगे. बल्कि उन्होंने घुटने टेक दिए टीआरपी के सामने. इसलिए ऐसे फर्जी समाचारों को दिखाने वाले चैनलों के पौ-बारह होने लगे. सारे चैनल उसी राह पर चल पड़े. नतीजा यह भी हुआ कि जो संवाददाता खबरों की बात करता, उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता. समाचार चैनलों से विचारवान पत्रकारों की छंटनी होने लगी और चालाक, बाजीगर किस्म के प्रोड्यूसरों की बन आयी. जब बहुत विरोध होने लगा तो सैम्पल साइज कुछ बढाया गया. पहले चार हजार, फिर छः हजार अब आठ हजार तक ही पहुँच पाया है टैम. आज की तारीख में भी ८१५० सैम्पल साइज के भरोसे पूरे देश का मूड बताने का दावा करता है टैम. क्या भारत जैसे बहुरंगी देश में यह संभव है?

अब सरकार कह रही है कि सैम्पल साइज बढाओ. कम से कम २० हजार करो. हर साल दस-दस हजार बढ़ाना  होगा. चार साल में ५० हजार करना होगा. यह देख कर टैम वालों को नानी याद आ रही है. मिल बाँट कर खाने-खिलाने का खेल ख़त्म होने वाला है. आखिर नौ हज़ार करोड़ के टीवी विज्ञापनों पर एकाधिकार का मामला है. मिल-बाँट कर खाने का खेल है. इसलिए अदालत की शरण में जा रहे हैं. लेकिन अदालत भी सब समझती है, इसलिए उसने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया है. अब ब्लैक आउट का डर दिखा कर ब्लैकमेल किया जा रहा है. ब्लैक आउट होता है तो होने दो, पर टीआरपी की नयी व्यवस्था ईमानदारी से लागू होनी ही चाहिए. टीआरपी की मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखना देश के साथ धोखा है. (कैनविज टाइम्स, बरेली, ३ फरवरी, २०१४ को प्रकाशित)

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