तंत्र में हिस्सेदारी के लिए छटपटाता गण

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भारतीय गणतंत्र के ६५वें जन्म दिन पर सबसे बड़ा सवाल यही है कि बीते ६४ वर्षों में हमारा तंत्र अपने गण के कितने निकट पहुँच पाया है? वह स्वाधीनता संग्राम के सपनों को कहाँ तक साकार कर पाया है? यहाँ स्वाधीनता संग्राम के सपनों का सन्दर्भ इसलिए दिया जा रहा है, क्योंकि आज जिस गणतंत्र में हम रह रहे हैं, उसकी पूरी परिकल्पना संग्राम के दौरान ही बुनी गयी थी और जिसे बाद में संविधान सभा ने संविधान के रूप में लिपिबद्ध किया था. गणतंत्र का मतलब होता है एक लिपिबद्ध संविधान के तहत स्वशासन. केवल आज़ादी नहीं, अपनी इच्छाओं-आकांक्षाओं के अनुरूप स्वशासन. ऐसा स्वशासन, जो हमारे संस्कारों में युगों-युगों से रचा-बसा हो. उसमें ‘अपने जैसापन’ का गुण होना सबसे महत्वपूर्ण है.

गांधी भारत के लिए ग्राम गणराज्य की परिकल्पना करते थे. वे आजादी का असली अर्थ गांवों की समरसता, आत्मनिर्भरता और लोकतंत्र में जन भागीदारी को मानते थे. उन्होंने कहा, ‘मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करूंगा जिसमें छोटे से छोटे व्यक्ति को भी यह अहसास हो कि यह देश उसका है, इसके निर्माण में उनका योगदान है और उसकी आवाज का यहां महत्व है। मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करुंगा जहां ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं होगा, जहां स्त्री-पुरुष के बीच समानता होगी और इसमें नशे जैसी बुराइयों के लिए कोई जगह नहीं होगी।’ गांधी जी का सपना कपोल-कल्पित नहीं था. दरअसल वह हजारों वर्ष पूर्व के हमारे ग्राम गणराज्यों के अनुभव पर आधारित था, जिनकी बदौलत भारत वर्ष स्थिर रहा, बचा रहा. चार हजार वर्ष पुराना वैशाली गणराज्य हो या गौतम सिद्धार्थ का कपिल वस्तु हो या मगध का पड़ोसी लिच्छवी गणराज्य, जनता को यह अधिकार प्राप्त था कि वह अपने फैसले स्वयं ले. भलेही तब राजा का पुत्र ही राजा बनता हो, लेकिन जनता से जुड़े फैसले जनता से पूछ कर ही किये जाते थे. हमारी परम्परा रही है कि सत्ता के शिखर पर चाहे जो भी हो, गण के स्तर पर समरसता बनी रहती थी क्योंकि कि उसे स्वशासन की स्वायत्तता थी. गण और राज्य के रिश्तों की यही परिकल्पना आजादी के आन्दोलन के दौरान बनी थी. गाँधी जी चाहते थे कि हमारा संविधान इसी सपने के इर्द-गिर्द बुना जाए. पूरी तरह से तो नहीं, हमारे संविधान में इसकी कुछ झलक जरूर दिखी. वह बात अलग है कि हमारे हुक्मरान इसे साकार करने में कामयाब नहीं रहे.

हम यह नहीं कहते कि वे पूरी तरह से विफल रहे, कुछ काम जरूर उन्होंने किये. यही वजह है कि यह गणतंत्र ६४ वर्ष से डटा हुआ है. वरना हमारे साथ आज़ाद हुए देश हमसे बहुत पीछे हैं. बहुत से तो लड़खड़ा रहे हैं. हमने अपने गण को तंत्र से जोड़ने की तमाम कोशिशें कीं. उसे मौलिक अधिकार दिए, वयस्क मताधिकार दिया, राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत दिए, आज़ादी और समानता दी, अल्पसंख्यकों को सुरक्षा दी. नियोजित विकास दिया, शिक्षा और स्वास्थय दिया, सामाजिक न्याय दिया, राष्ट्रीय स्तर पर आत्मनिर्भरता दी, वैज्ञानिक और सैन्य तरक्की मिली, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आत्मसम्मान दिया. इसीलिए हम टिके रह पाए. इसी की बदौलत हम आज एक महाशक्ति के रूप में स्थापित हुए हैं. हमारे संविधान ने जो भी रूपरेखा हमें दी, उसी के चलते आजादी का सुफल आज आम जनता को चखने को मिला है.

हाँ, यदि हमारे शासक गांधी जी के सपनों के अनुरूप ग्राम गणराज्य नहीं स्थापित कर पाए हैं, तो उसके लिए वे जिम्मेदार हैं. इसीलिए हमारा गण उसके लिए लगातार संघर्ष कर रहा है. हमने त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था कायम की लेकिन गलती यह हुई कि वह नींचे से न संचालित होकर ऊपर से होने लगी. नतीजा यह हुआ कि ऊपर की भ्रष्ट व्यवस्था नींचे तक पहुँच गयी. सरकार की तमाम विकास योजनायें जिस तरह से हमारे गण को काहिल बना रही हैं, वह इसी का प्रतिफल है. इस गणतंत्र ने लोगों को भौतिक तरक्की जरूर दी है, लेकिन उसे स्वार्थी और आत्मकेंद्रित भी बना दिया है. आज हमारे गण के भीतर से अपने समाज और देश के प्रति अपनत्व गायब हो गया है.  

इसलिए यह जरूरी है कि हमारे नीति निर्माता और उन्हें अंजाम देने वाला तंत्र गणराज्य की मूल भावना को समझें. भगवान् बुद्ध ने कहा था कि जब तक लिच्छवी में स्वशासन रहेगा, जनता की भागीदारी रहेगी, तब तक वहाँ समृद्धि और खुशहाली भी रहेगी. अर्थात गणराज्य की भारतीय अवधारणा में गण की भागीदारी अनिवार्य है. उसी में खुशहाली का राज छिपा है. इसलिए हमारे साढ़े छः दशक के गणतंत्र की सबसे बड़ी कसौटी यही है कि हम कहाँ तक अपने नागरिक को स्वशासन में भागीदार बना पाए हैं? यह ठीक है कि हमने अपने यहाँ संसदीय लोकतंत्र कायम किया. अपने संविधान में तमाम देशों के संविधानों के अच्छे तत्वों को शामिल किया. उस पर चल कर हमारा गण भौतिक रूप से समृद्धिशाली तो बन रहा है लेकिन खुशहाल नहीं. उसे वह तृप्ति नहीं मिल पा रही है, जो उसे मिलनी चाहिए. यही वजह है कि रालेगण सिद्दी या हिवरे बाज़ार या भीकमपुरा किशोरी या स्वाध्याय प्रेरित गुजरात के गाँववासियों के चेहरों पर तो हम तृप्ति का भाव देखते हैं, संमृद्धि के प्रतीक नगरों के लोग अपनी स्थिति से असंतुष्ट नजर आते हैं. खुशी की बात यह है कि आज हमारे नागरिकों में स्वशासन की चाह बढ़ रही है. वे शासन में और बड़ी भूमिका के लिए छटपटा रहे हैं. हमारी राजनीति का बदलता चरित्र इसकी गवाही देता है.

(दैनिक जागरण, २६ जनवरी, २०१४ से साभार)

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