धान की फसल कट चुकी है. खेतों में जगह-जगह रबी की फसल बोई जा रही है. कहीं-कहीं गेहूं की नन्हीं कोंपलें फूटने लगी हैं. काली-काली मिट्टी पर हरे छींट वाली चादर की तरह. सुबह टहलने जाता हूँ तो नन्हीं कोंपलों पर मोती सरीखी ओस की बूंदों को देख मन खुशी और विस्मय से भर उठता है. कभी सूर्य की पहली किरण इन पर पड़ जाए तो यह आभा एकदम स्वर्णिम हो जाती है. कुछ ठहर कर देखता हूँ, अपनी आँखों में इन दृश्यों को भर लेना चाहता हूँ. हरे-भरे खेत में जैसे हजारों-हजार मोती बिखरे हुए हैं. बीच-बीच में इक्का-दुक्का सरसों के फूल उनकी लय को तोड़ रहे हैं. प्रकृति की कैसी लीला है! अच्छा ही हुआ, इस अलसाए-से कसबे में आ गया, वरना महानगर में इस सब से बंचित रह जाता.
दीपावली के साथ ही यहाँ मौसम में गुनगुनी ठण्ड शुरू होने लगती है. हल्द्वानी के जिस इलाके में रहता हूँ, वहाँ अप्रैल-मई में बया का शोर सुनाई देने लगा था. नवम्बर आते-आते वे अपने घोंसले छोड़ कर वन-प्रान्तरों को लौट रही हैं. सर्दी के ख़त्म होने पर वे फिर आयेंगी, फिर से घोंसले बनाने की कवायद शुरू करेंगी. मेरे पड़ोस में मेहता जी के ताड़ वृक्षों पर इन्होने घोंसले बना लिए हैं. ६-७ महीने इनकी चें-पें से मेहता जी का आँगन गुलजार रहता है. आने वाले ६ महीने वीरानी के रहेंगे. घोंसले लटके रहेंगे लेकिन उनमें कोई चहल-पहल नहीं होगी. अगले साल फिर आयेंगी और नए घरोंदे बनाएंगी. सर्दियां बहुतों को अपनी धरती से उखाड़ देती हैं. पुराने जमाने में सर्दियों में पहाड़ों से लोग घाम तापने के लिए मैदानों में पडाव डाल लिया करते थे. तराई-भाबर में बहुत सी जगहें इनके पडाव बनती थीं. मौसम अनुकूल होते ही लोग फिर पहाड़ों की ओर लौट जाया करते थे. आज भी उच्च हिमालयी इलाकों के भोटिया लोग सर्दियों के चार महीने अपने भेड़-बकरियों के साथ मैदानी तलहटियों में आ जाते हैं. लेकिन बयाओं का यह झुण्ड अपेक्षाकृत गर्म मौसम में यहाँ आता है, अपनी गृहस्थी बसाने. शायद इन्हें मानव बस्तियों में सुरक्षित ठिकानों की तलाश रहती है पर मानव-बस्तियां भी अब कहाँ सुरक्षित रहीं? इनके रहने की जगहें लगातार सिकुडती जा रही हैं.
सर्दी यानी ठण्ड यानी हेमंत ऋतु दस्तक दे चुकी है. अगहन यानी मंगसीर के आते ही मौसम में सर्द हवाओं की मादकता छाने लगती है. इन सर्द हवाओं के भी अनेक रंग देखे हैं. लेकिन प्रकृति का न्याय भी किसी समाजवाद से कम नहीं होता. अपने होने का एहसास वह सबको बराबर कराता है. जो अपनी तमाम सुख-सुविधाओं और ऐशो-आराम के जरिये गरमी या सरदी को जीत लेने का दम भरते हैं, वे गलत हैं. आप सर्दी का आनंद लेना चाहें तो तमाम अभावों के बाद भी ले सकते हैं. और ठण्ड से डरते हों तो तमाम सुविधाओं के बावजूद वह आपको डराकर रहेगी. प्रकृति एक ही कोड़े से सबको हांकती है, वह बात अलग है कि किसी को उसका अहसास होता है और किसी को नहीं.
पिथौरागढ़ जिले में सौगाँव नाम के जिस गाँव में मेरा जन्म हुआ, वहाँ ख़ास ठण्ड नहीं पड़ती है. चारों तरफ से घिरी पहाड़ियों के बीच तलहटी में जो बसा है. वहाँ प्राइमरी करने के बाद चौबाटी के मिडिल स्कूल में दाखिला लिया. चौबटी लगभग ५००० फुट ऊंचाई पर होगा. अपने गाँव के बच्चे रोज पांच किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ के चौबाटी पहुंचते. और दोपहर के बाद लौटते. वहाँ कडाके की ठण्ड पड़ती थी. नवम्बर आते-आते ठण्ड पड़नी शुरू हो गयी थी, लेकिन मेरे पास न कोट था और न पैंट. एक हाफ स्वेटर दीदी ने बुनकर भिजवा दिया था. वह मेरे लिए बड़े-बड़े ऊनी कोटों से बढ़कर था. लेकिन कुछ छवियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें मनुष्य कभी भुला नहीं पाता. ऐसा ही एक दृश्य हाजिर है. सर्दी की छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुला तो मैं नया कोट पहन कर स्कूल गया. मेरे मामाजी ने एक कोट सिलवा कर भिजवा दिया था. मक्खन जीन का कोट. उसके आने की अद्भुत खुशी थी. हलकी बरसात हो रही थी. जिनके पास भरपूर कपडे थे, उन्हें कडाके की ठण्ड लग रही थी. पर मैं अपने कोट के नशे में था. मेरे पास न जूते थे, न पैंट. पैरों में चप्पल और कमर में नेकर. स्कूल में प्रार्थना के वक्त मेरे एक दोस्त ने देखा तो आँखों ही आँखों में खुशी जाहिर की कि आखिर मेरे पास भी कोट आ गया है. लेकिन जैसे ही उसने आँखें नीचे फेरीं तो अफ़सोस जाहिर किया कि पैंट और जूते के बिना कोट का मजा किरकिरा हो गया. लेकिन मुझे कहाँ पैंट की परवाह थी! मैंने गर्व से कहा, ‘मुझे बिलकुल भी ठण्ड नहीं लग रही. कोट जो पहन रखा है!’
एक और दृश्य सुनिए. आठवीं के बाद कनालीछीना इंटर कॉलेज में नौवीं कक्षा में भरती हुआ. यह मेरे घर से काफी दूर यानी पैदल कोई २० किलोमीटर दूर था. महीने में एक बार अपने गाँव आता और महीने भर का सामान लेकर जाता. डेरा करके रहता था. यहाँ और भी ज्यादा ठंड पड़ती थी. दो लड़कों ने एक कमरा किराए में ले रखा था. कमरा क्या था हवामहल. किराया था नौ रुपये. खुद ही जंगल से लकडियाँ बटोरते और खुद ही खाना बनाते. तब मैं दसवीं में था. सर्दियों की छुट्टियों के बाद एक फरवरी को स्कूल खुलना था. हम दो लड़के ३१ जनवरी को ही अपने डेरे में पहुँच गए थे. हमारे पास ओढने-बिछाने को ख़ास कपडे नहीं थे. शाम होते-होते बारिश होने लगी और रात ढलते बर्फ गिरने लगी. हम कम्बल के भीतर गए तो ठण्ड और परेशान करने लगी. हमने आग जलाई और रात भर हिमपात का आनंद उठाते रहे. सुबह हुई. हमने बाहर आकर देखा कि चारों ओर धरती ने बर्फ की चादर ओढ़ रखी थी. गिरते-फिसलते स्कूल गए. लेकिन प्रिंसिपल ने छुट्टी की घोषणा कर दी. हम लोग डबुल शोर करते हुए कमरे में लौटे. मेरे पास ओढने को एक पुराना कम्बल था. रूम पार्टनर चंद्रू की स्थिति मुझ से कोई बेहतर नहीं थे. लेकिन एक दिन उसके गरीब पिताजी कहीं से जुगाड़ करके उसके लिए २२ रुपये में एक रजाई खरीद कर पहुंचा गए. शायद एक-डेढ़ किलो की थी. मैं खुश था कि चलो एक के पास तो रजाई आयी. एकाध कोना तो मुझे भी मिल ही जाएगा. लेकिन जब रात को सोने का वक्त हुआ तो चंद्रू ने सख्त रवैया अपना लिया, ‘रजाई मेरी है तो मैं ही ओढूंगा.’ मैंने कहा, ‘चल यार कोई बात नहीं.’ जब रात को उसे नींद आ गयी तो मैंने कोशिश की कि मैं भी उसके भीतर समा जाऊं. लाख कोशिश करने पर भी मैं उसके भीतर नहीं आ सका. मैं हार कर अपने कम्बल के साथ सो गया. सच, जिन्दगी कितनी मजेदार होती है! तमाम अभावों के बावजूद हमें कभी ठण्ड ने अपने होने का अहसास नहीं कराया. नाक बहती रहती थी, पर कभी परवाह नहीं की. कभी दवा नहीं खाई. हमारे पंडितजी, महीने में एक बार गाँव भर के बच्चों को एक-एक पुडिया खिला जाते, वही हमारे लिए किसी भी टॉनिक से बढ़कर होती. जिन्दगी बिद्रूपों से भरी होती है. जिस कडाके की सर्दी को बचपन में ही खेलते-कूदते परास्त कर चुका था, जिन्दगी के दूसरे पडाव में पहुंचकर उसे अपने पब्लिक स्कूली बच्चों के साथ एक पर्यटक की तरह देखना कितना अजीब लगता है. जब अपने ही बच्चे हिमपात को देखने पैसे खर्च करके मसूरी-नैनीताल जाते हैं तो लगता है कि एक दिन मैं भी अजायबघर में रखा जाऊंगा.
दिल्ली जैसे शहरों में सर्दी की मार और भी दुधारी होती है. एक तरफ अट्टालिकाओं में रहने वाले लोग तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद ठण्ड का रोना रोते रहते हैं. घर-दफ्तर सब तरफ कृत्रिम गरमी. थोड़ी-सी भी हवा लग जाए तो बीमारी का डर. जबकि दूसरी तरफ झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोग कीड़े-मकोड़ों जैसी जिन्दगी जीने को मजबूर होते हैं. राजधानी दिल्ली में ही हजारों लोग बेघर सड़कों के किनारे उधार की रजाई लेकर रात बिताते हैं. तरक्की की तमाम कहानियों के बावजूद साल दर साल शीत लहर से मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. फिर भी वे कभी किसी से शिकायत नहीं करते. करें भी तो किससे? बेशक सर्दी का रिश्ता भूख से होता है. हमारी तरफ सर्दियों की सबसे बड़ी रात को कौव्वे की मूर्छा वाली रात कहा जाता है. क्योंकि कड़कती ठण्ड में भूख के मारे इतनी लम्बी रात काट पाना जब दीर्घजीवी कौव्वे के लिए ही असह्य होता हो तो मनुष्य के लिए कितना कष्टकारी नहीं होगा. कुछ अरसा पहले राजधानी दिल्ली के ही एक उम्दा कालेज में पढने वाली एक लड़की ने अपनी पूरी ईमानदारी के साथ फुटपाथ में रहने वालों के साथ रात बिताने का फैसला लिया, उनके दर्द को करीब से महसूस करने के लिए. लेकिन रात होते-होते उसे असह्य लगने लगा और उसने फोन करके अपने परिजनों को बुला लिया. कितना कठिन होता है सिद्धांत और व्यवहार में! हमारी अधिसंख्य नीतियाँ और योजनायें इसी तरह तो बनती हैं.
उत्तर भारत के शहरों में सर्दियों की शुरुआत सप्तपर्णी के खिलने से होती है. नवम्बर आते-आते पूरे के पूरे पेड़ सफेद फूलों से लद जाते हैं, जो रात भर गमकते रहते हैं. इधर तराई के साल-शीशम के जंगल भी फूलने लगे हैं, जिनकी छटा दूर से देखते ही बनती है. हालांकि प्रेम के लिए ऋतुराज वसंत को जाना जाता है, लेकिन प्रेम की अंतिम परिणति हेमंत में ही होती है. सचमुच यह रति की ऋतु है. सृजन और विनाश साथ-साथ चलता रहता है. यही ऋतु है, जो सबसे ज्यादा जानें लेती है और यही ऋतु सर्वाधिक जीवन भी देती है. यह जीवन-कामना की ऋतु है. ऋतुसंहार में कालिदास कहते हैं, ‘अनेक गुणों से रमणीय अंगनाओं के चित्तों को हरनेवाला, परिपक्व धानों से ग्रामों की सीमाओं की शोभा बढ़ानेवाला, चारों ओर पाला पड़ा, क्रौंच पक्षियों के गीतों से व्याप्त, बरफयुक्त यह हेमंत ऋतु आप सबको सुख प्रदान करे.’
पद्मावतकार जायसी से इस मौसम में अपनी नायिका का वियोग सहा नहीं गया. विरह विदग्ध नायिका कहती है:
जानहुँ चंदन लागेउ अंगा। चंदन रहै न पावै संगा॥
भोग करहिं सुख राजा रानी। उन्ह लेखे सब सिस्टि जुडानी॥
हंसा केलि करहिं जिमि , खूँदहिं कुरलहिं दोउ ।
सीउ पुकारि कै पार भा, जस चकई क बिछोउ॥9॥